जय जालोर
मारवाड़ के दक्षिण पिश्चम में स्थित जालोर इतिहास में अपना विलक्षण स्थान रखता है। इस जिले में पर्यटन और पुरातत्व की दृष्टि से विकास की अकूत संभावनाएं हैं। पुरातन परम्पराओं और संस्कृति को यहां के लोगों ने ज्यों का त्यों सहेजकर रखा है। यहां के इतिहास को टटोलने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि जालोर स्वयं एक दर्दभरी दास्तान है। उपेक्षित किन्तु महान महाकाव्य है, जिसे इतिहास के भुलाए हुए महाकवियों द्वारा पत्थरों पर लिखा गया है। सचमुच पत्थरों की भांति ही है इसकी अद्भुत शौर्य गाथाएं जो न तो अब तक काल के थपेड़ों के साथ राख बनकर उड़ सकी है और न ही विस्मृति की वषाZ से धुल सकी है। यहां का इतिहास आज भी लोगों की स्मृतियों में जीवित है। चूंकि जालोर अपने आप में विशिष्ट एवं विलक्षण है इसलिए आपसे आह्वान है कि यहां आकर टटोलने का प्रयास करो कि यहां के ऐतिहासिक पत्थर बड़े हैं या उन पर इतिहास रचने वाले कारीगर।
Jai Jalore
Geography
The district is bounded on the northwest by Barmer District, on the northeast by Pali District, on the southeast by Sirohi District, and byBanaskantha District of Gujarat state on the southwest.
The total area of the district is 10,640 km2 (4,108 sq mi). The altitude is 268 mts, latitude is 25.22 N and longitude is 72.58 E. The main river of the district is Sukri, a tributary of Luni river.
Administrative set-up
Jalore, Ahore, Bhinmal, Raniwara, Sanchore, Sayala, Bagoda and Chitalwana are tehsils and Bhadrajun have Sub-Tehsil Office. There are eight Panchayat Samitis including Jalore, Bhinmal, chitalwana and Sayala.
There are 767 revenue villages in the district grouped under 264 Gram Panchayat villages. Three Municipalities are situated at Jalore, Bhinmal and Sanchore.
Political set up
Jalore-Sirohi is one joint one parliamentary constituency. Buta Singh won three times from this parliamentary constituency . There are five legislative assembly areas namely Jalore, Ahore, Bhinmal, Raniwara and Sanchore.
Economy
The economy of district is mainly based on agriculture and animal husbandry. The oilseeds specially mustard oil seed is predominant crop. Wheat, bajra, kharif pulses, barley, jowar and seasmum are other produces.
Of late some mineral based industries are set up based on mineral available from local mines. The main minerals produced are:Gypsum, limestone, bajari, murram, granite, and graded flourite.
There is no large and medium size industry in the district. The main small scale industries are :granite slabs and tiles, marble cutting and polishing, mustard seed crushing, skimmed milk powder, butter and ghee, handloom cloth, leather shoes (mojari). There are four industrial areas in the district.
In 2006 the Ministry of Panchayati Raj named Jalor one of the country's 250 most backward districts (out of a total of 640).[1] It is one of the twelve districts in Rajasthan currently receiving funds from the Backward Regions Grant Fund Programme (BRGF).[1]
Infrastructure
Electricity
There are two sub grid stations of 220 KV at Jalore and Bhinmal. The district receives power from Dewari grid station in Udaipur District. Almost all villages of the district are electrified.
A small area is irrigated from water of Jawai dam. The main source of irrigation continues to be wells. Over exploitation of ground water has meant that farmers have to dig deeper. Sanchore tehsil will get water from Narmada canal project when completed.
Transport
National Highway no 15 (Bhatinda-Kandla) passes through the district. The total road length in the district is about 2,800 km (1,740 mi).
The district is connected by broad gauge railway line of North Western Railway. Samadari-Bhildi branch line passes through the district connecting Jalore and Bhinmal towns. There are 15 railway stations and 127 km (79 mi) of railway line in the district. The nearest airport is Jodhpur. There is also an air strip at village Noon about 35 km (22 mi) from Jalore town.
Demographics
According to the 2011 census Jalor district has a population of 1,830,151 ,[2] roughly equal to the nation of Kosovo[3] or the US state of Nebraska.[4] This gives it a ranking of 260th in India (out of a total of 640).[2] The district has a population density of 172 inhabitants per square kilometre (450 /sq mi) .[2] Its population growth rate over the decade 2001-2011 was 26.31 %.[2] Jalor has a sex ratio of 951 females for every 1000 males,[2] and a literacy rate of 55.58 %.[2]
Climate
The minimum and maximum temperatures of the district are 4 degrees and 50 degrees Celsius respectively. The average rainfall is 412 mm. The climate of district is dry and with extremes.
Wildlife
Indian Wild Ass, a rare member of Indian Wildlife seems to be increasing in numbers and extending its range from Little Rann of Kutch in the neighboring Indian State of Gujarat, where the world's last population of this subspecies had got confined to in recent years, and has gradually started moving out and colonizing Greater Rann of Kutch also extending into the neighboring State of Rajasthan in the bordering villages in Jalore district bordering the Rann of Kutch in Gujarat. Gujarat's supposed monopoly over this sub-species, also referred to as Khur (Equus hemionus khur) has thus been broken. Within Rajasthan it has started making its presence felt in Khejariali and its neighbourhood where a 60 km2area was transferred to the Rajasthan Forest Department by the revenue authorities in 2007. At this place Rebaris (camel and sheep breeders) live in the Prosopis juliflora jungles in the company of chinkaras, hyenas, common fox, desert cat and wolf etc.
जय जालोर
मारवाडके दक्षिण-पश्चिममें स्थित जालोर इतिहासमें अपना विलक्षण स्थान रखता है । इस जिलेमें पर्यटन और पुरातत्वकी दृष्टिसे विकासकी अगणित संभावनाएं हैं । पुरातन परम्पराओं और संस्कृतिको यहांके लोगोंने संभालकर रखा है ।
जालोरका स्वर्णगिरी दुर्ग
जालोरकी आन-बान-शानका प्रतीक जालोर दुर्ग आज भी अपने शौर्यकी गाथा गाता है । यह दुर्ग राजस्थान राज्य सरकारके पुरातत्व विभागकी धरोहर है एवं वर्ष १९५६ से संरक्षित स्मारक है । जालोर दुर्गपर जानेके लिए शहरके मध्यसे ढेडी-मेडी गलियोंसे होकर जाना पडता है ।
जालोर दुर्ग नगरके दक्षिणमें १२०० फीट ऊंची पहाडीपर स्थित है । दुर्गमें जानेके लिये एक टेढा-मेढा पहाडी रास्ता जाता है, जिसकी ऊंचाई कदम-कदमपर बढती हुई प्रतीत होती है । इस चढाईको पार करनेपर प्रथम द्वार आता है, जिसे ‘सूरजपोल’ नामसे कहते हैं । धनुषाकार छतसे आच्छादित यह द्वार आज भी बडा सुंदर दिखाई देता है । इस पर छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं, जिनके नीचेके अन्त:पाश्वोंमें दुर्ग रक्षक रहा करते थे । तोपोंकी मारसे बचनेके लिये एक विशाल दीवार घूमकर दरवाजेको सामनेसे ढक लेती है । यह दीवार लगभग २५ फीट ऊंचीr तथा १५ फीट मोटी है । इसके पश्चात् लगभग आधा मील चलनेपर दुर्गका दूसरा द्वार आता है, जो ‘ध्रुव पोल’ नामसे कहलाता है । यहांकी घेराबंदी भी बडी महत्वपूर्ण थी । इस मोर्चेको जीते बिना दुर्गमें प्रवेश करना असंभव था ।
तीसरा द्वार ‘चान्दपोल’ नामसे कहलाता है, जो अन्य द्वारोंसे अधिक भव्य, मजबूत एवं सुंदर है । यहांसे रास्तेके दोनों ओर साथ चलनेवाली प्राचीर कई भागोंमें विभक्त होकर गोलाकर सुदीर्ध पर्वत प्रदेशको समेटती हुई फैल जाती है । तीसरेसे चौथे द्वारके बीचका स्थल बडा सुरक्षित है । चौथा द्वार ‘सिरे पोल’ नामसे कहलाया जाता है । यहां पहुचनेसे पहले प्राचीरकी एक पंक्ति बाई ओरसे ऊपर उठकर पहाडीके शीर्ष भागको छू लेती है और दूसरी दाहिनी ओर घूमकर गिरिशृंगोको समेटकर चक्राकार घूमती हुई प्रथम प्राचीरसे आ मिलती है ।
किलेकी लम्बाई पौन किलोमीटर तथा चौडाई लगभग आधा किलोमीटर है । इस समय यहां राजा मानसिंहका महल, दो बावडियां, एक शिव मंदिर, देवी जोगमायाका मंदिर, वीरमदेवकी चौकी, तीन जैन मंदिर, मिल्लकशाह दातारकी दरगाह तथा मस्जिद स्थित है । जैन मंदिरोमें पाश्र्वनाथका मंदिर सबसे बडा एवं भव्य है । इस मंदिरके पीछे दीवारोंपर अंकित मूर्तिशिल्प अनूठा है, जो कि दर्शाकोंको सर्वाधिक आकर्षित करता है ।
चौमुखा जैन मंदिरसे मानसिंहके महलोंकी ओर जाते समय ठीक तिराहेपर एक परमारकालीन कीर्ति स्तंभ एक छोटे चबूतरेपर आरक्षित स्थितिमें खडा है । संभवत: परमारोंकी यही अन्तिम निशानी इस किलेमें बची है । मानव आकृतिके कदका लाल पत्थरका यह कीर्ति स्तंभ अपनी कलापूर्ण गढाईके कारण विवश होकर ही पर्यटकोंका ध्यान अपनी ओर खींच लेता हैं । वर्षों पूर्व यह स्तंभ किसी कुएकी सफाई करते समय मिला था, जिसे यहां स्थापित कर दिया गया है ।
मानसिंहके महलोंमें प्रवेश करते ही एक विशाल चौकोर सभा मंडप आता है । जिसके दाई ओर एक सभागृह है । इस सभागृहमें एक टूटी-फूटी तोप गाडी और एक विशाल तोप पडी है । मानसिंह महलके ठीक नीचे आम रास्तेकी तरफ ऊंचाईपर झरोखे बने हुए हैं, जो कि प्रस्तर कलाकी उत्कृष्ट निशानी है । इसी महलमें दो तलोंका रानी महल है । उसके चौकमें भूमिगत कुआं बनाया हुआ है, जोकि अब दर्शकोंके लिये बंद कर दिया गया है । महलमें बडे बडे कोठार बने हुए हैं, जिनमें धान, घी आदि भरा रहता था । महलकी पिछली पगडंडियोंसे शिव मंदिरकी ओर मार्ग जाता है । जहां एक श्वेत प्रस्तरका विशाल शिवलिंग स्थित है । मंदिरके पिछवाडेसे कुएंकी ओर एक रास्ता जाता है, जहांपर चामुण्डा देवीका मंदिर बना हुआ है । इस मंदिरमें एक शिलालेख लगा हुआ है, जिसमें युद्धसे घिरे हुए राजा कान्हडदेवको देवी भगवती द्वारा चमत्कारिक रूपसे तलवार पहुंचानेकी सूचना उत्कीर्ण है ।
वीरमदेवकी चौकी पहाडीकी सबसे ऊंची जगहपर दक्षिण पूर्व ही ओर स्थित है । यहांसे बहुत दूर-दूरतकका दृश्य देखा जा सकता है । यहां जालोर राज्यका ध्वज लगा रहता था । वर्तमानमें इसके पास ही एक मस्जिद है । अंग्रेजोंके विरुद्ध किए गए स्वतंत्रता आंदोलनके समय गणेशलाल व्यास, मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी एवं तुलसीदास राठी आदि नेताओंको इसी किलेमें नजरबंद किया गया था ।
इसलिए भी है विशेष महत्त्व
जालोर दुर्ग मारवाडका सुदृढ गढ है । इसे परमारोंने बनवाया था । यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौडोंके आधीन रहा । यह राजस्थानमें ही नही; अपितु सारे देशमें अपनी प्राचीनता, सुदृढता और सोनगरा चौहानोंके अतुल शौर्यके कारण प्रसिद्ध रहा है । जालौर जिलेका पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाडी शृंखलासे आवृत है । इस पहाडी शृंखलापर उस कालमें घनी वनावली छायी हुई थी । अरावलीकी शृंखला जिलेकी पूर्वी सीमाके साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊंचीr चोटी ३२५३ फुट ऊंचीr है। इसकी दूसरी शाखा जालौरके वेंâद्र भागमें पैâली है, जो २४०८ फुट ऊंचीr है । इस शृंखलाका नाम सोनगिरि है । सोनगिरि पर्वतपर ही जालौरका विशाल दुर्ग विद्यमान है । प्राचीन शिलालेखोंमें जालौरका नाम जाबालीपुर और किलेका नाम ‘सुवर्णगिरि’ मिलता है । ‘सुवर्णगिरि’ शब्दका अपभ्रंशरुप ‘सोनलगढ’ हो गया और इसीसे यहांके चौहान सोनगरा कहलाए । जहां जालौर दुर्गकी स्थिति है, उस स्थानपर सोनगिरिकी ऊंचाई २४०८ फुट है । यहां पहाडीके शीर्ष भागपर ८०० गज लंबा और ४०० गज चौडा समतल मैदान है । इस मैदानके चारों ओर विशाल बुजाए और सुदृढ प्राचीरोंसे घेर कर दुर्गका निर्माण किया गया है । गोल बिंदुके आकारमें दुर्गकी रचना है, जिसके दोनों पाश्र्वभागोंमें सीधी मोर्चा बंदी युक्त पहाडी पंक्ति है ।
दुर्गमें प्रवेश करनेके लिए एक टेढा-मेढा रास्ता पहाडीपर जाता है । अनेक सुदीर्घ शिलाओंकी परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किलेके प्रथम द्वार तक पहुंचता है । किलेका प्रथम द्वार बडा सुंदर है । नीचेके अंत: पाश्र्वभागपर रक्षकोंके निवास स्थल हैं । सामनेकी तोपोंकी मारसे बचनके लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वारको सामनसे ढक देती है । यह दीवार २५ फुट ऊंचीr एंव १५ फुट चौडी है । इस द्वारके एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीरका भाग है । यहांसे दोनों ओर दीवारोंसे घिरा हुआ किलेका मार्ग ऊपरकी ओर बढता है । ज्यों-ज्यों आगे बढते हैं, नीचेकी गहराई अधिक होती जाती है ।
इन प्राचीरोंके पास मिट्टीके ऊंचे स्थल बने हुए हैं, जिनपर रखी तोपोंसे आक्रमणकारियोेंपर मार की जाती थी । प्राचीरोंकी चौडाई यहां १५-२० फुटतक हो जाती है । इस सुरक्षित मार्गपर लगभग आधा मील चढनेके बाद किलेका दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है । इस दरवाजेका युद्धकलाकी दृष्टिकोणसे विशेष महत्व है । दूसरे दरवाजेसे आगे किलेका तीसरा और मुख्य द्वार है । यह द्वार दूसरे द्वारोंसे विशालतर है । इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं । यहांसे रास्तेके दोनों ओर साथ चलनेवाली प्राचीर शृंखला कई भागोंमें विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेशको समेटती हुई फैल जाती है । तीसरे एवं चौथे द्वारके मध्यकी भूमि बडी सुरक्षित है । प्राचीरकी एक पंक्ति तो बांई ओरसे ऊपर उठकर पहाडीके शीर्ष भागको छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानोंपर छाई हुई चोटियाको समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीरकी पंक्तिसे आ मिलती है । यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकारके बुर्ज बनाए गए हैं । कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीरसे अलग हैं । दोनोंकी ओर गहराई ऊपरसे देखनेपर भयावह लगती है ।
जालौर दुर्गका निर्माण परमार राजाओंने १०वीं शताब्दीमें करवाया था । पश्चिमी राजस्थानमें परमारोकी शक्ति उस समय चरम सीमापर थी । धारावर्ष परमार बडा शक्तिशाली था । उसके शिलालेखोंसे, जो जालौरसे प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्गका निर्माण उसीने करवाया था । वस्तुकलाकी दृष्टिसे किलेका निर्माण हिन्दु शैलीसे हुआ है । परंतु इसके विशाल प्रांगणमें एक ओर मुसलमान संत मलिक शाहकी मस्जिद है । जालौर दुर्गमें जलके अतुल भंडार हैं । सैनिकोंके आवास बने हुए हैं । दुर्गके निर्माणकी विशेषतके कारण तोपोंकी बाहरसे की गई मारसे किलेके अंतः भागको जरा भी हानि नही पहुंचीr है । किलेमें इधर-उधर तोपें बिखरी पडी हैं । ये तोपों विगत संघर्षमय युगोंकी याद ताजा करतीं है ।
१२ वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारोंके अधिकारमें रहा । १२ वीं शताब्दीमें गुजरातके सोलंकियोंने जालौरपर आक्रमण कर परमारोंको कुचल दिया और परमारोंने सिद्धराज जयसिंहका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया । सिद्धराजकी मृत्युके बाद कीर्विâत्तपाल चौहानने दुर्गको घेर लिया । कई माहके कठोर प्रतिरोधके बाद कीर्विâत्तपाल इस दुर्गपर अपना अधिकार करनेमें सफल रहा । कीर्विâत्तपालके पश्चात् समरसिंह और उदयसिंह जालौरके शासक हुए । उदय सिंहने जालौरमें सन १२०५ से सन १२४९ तक शासन किया । गुलाम वंशके शासक इल्तुतमिशने १२११ से १२१६ के बीच जालौरपर आक्रमण किया । उन्होंने अधिक लंबे समयतक दुर्गका घेरा डाले रखा । उदय सिंहने वीरताके साथ दुर्गकी रक्षा की; पंरतु अंतोगत्वा उसे इल्तुतमिशके सामने हथियार डालने पडे । इल्लतुतमिशके साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरेमें उपस्थित थे, उन्होंने दुर्गके बारेमें अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि, यह अत्यधिक सुदृढ दुर्ग है, जिनके दरवाजोंको खोलना आक्रमणकारियोंके लिए असंभव-सा है ।
इस दुर्गके कारण यहांके शासक अपने आपको बडा बलवान मानते थे । जब कान्हडदेव यहांका शासक था, तब सन १३०५ में अलाउद्दीन खिलजीने जालौरपर आक्रमण किया । अलाउद्दीनने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासीके नेतृत्वमें भेजी थी । यह सेना कन्हडदेवका मुकाबला करनेमें असमर्थ रही और उसे पराजित होना पडा । इस पराजयसे दुखी होकर अलाउद्दीनने सन १३११ में एक विशाल सेना कमालुद्दीनके नेतृत्वमें भेजी, परंतु यह सेना भी दुर्गपर अधिकार करनेमें असमर्थ रही । दुर्गमें अथाह जलका भंडार एंव रसद आदिकी पूर्ण व्यवस्था होनेके कारण राजपूत सैनिक लंबे समयतक प्रतिरोध करनेमें सक्षम रहते थे । साथ ही इस दुर्गकी मजबूत बनावटके कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था । दो बार की असफलताके बाद भी अलाउद्दीनने जालौर दुर्गपर अधिकारका प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया । तात्कालीन श्रोतोंसे ज्ञात होता है कि, जब राजपूत अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर दुर्गकी रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाजने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभनमें शत्रुओंको दुर्गमें प्रवेश करनेका गुप्त मार्ग बता दिया । जिससे शत्रु सेना दुर्गके भीतर प्रवेश कर गई । कन्हडदेव और उसके सैनिकोंने वीरताके साथ खिलजीकी सेनाका मुकाबला किया और कन्हडदेव इस संघर्षमें वीर गतिको प्राप्त हुआ ।
कन्हडदेवकी मृत्युके पश्चात् भी जालौरके चौहानोंने हिम्मत नहीं हारी और पुन: संगठित होकर कन्हडदेवके पुत्र वीरमदेवके नेतृत्वमें संघर्ष जारी रखा, परंतु मुठ्ठीभर राजपूत रसदकी न्यूनता हो जानेके कारण शत्रुओंको ज्यादा देरतक रोक नहीं सके । वीरमदेवने पेटमें कटार भोंककर मृत्युका वरण किया । इस संपूर्ण घटनाका उल्लेख अखेराज चौहानके एक आश्रित लेखक पदमनाथने ‘कन्हडदेव प्रबंध' नामक ग्रंथमें किया है । महाराणा कुंभाके काल (सन १४३३ से १४६८ सन) में राजस्थानमें जालौर और नागौर मुस्लिम शासनके केन्द्र थे । सन १५५९ में मारवाडके राठौड शासक मालदेवने आक्रमण कर जालौर दुर्गको अल्प समयके लिए अपने अधिकारमें ले लिया । सन १६१७ में मारवाडके ही शासक गजसिंहने इसपर पुन: अधिकार कर लिया । १८ वीं शताब्दीके अंतिम चरणमें जब मारवाड राज्यके राज सिंहासनके प्रश्नको लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंहके मध्य संघर्ष चल रहा था, तब महाराजा मानसिंह वर्षोंतक जालौर दुर्गमें रहे । इस प्रकार १९ वीं शताब्दीमें भी जालौर दुर्ग मारवाड राज्यका एक हिस्सा था । मारवाड राज्यके इतिहासमें जालौर दुर्ग जहां एक ओर अपने स्थापत्यके कारण विख्यात रहा है, वहीं सैनिक दृष्टिसे भी महत्वपूर्ण रहा है ।
मारवाडके दक्षिण-पश्चिममें स्थित जालोर इतिहासमें अपना विलक्षण स्थान रखता है । इस जिलेमें पर्यटन और पुरातत्वकी दृष्टिसे विकासकी अगणित संभावनाएं हैं । पुरातन परम्पराओं और संस्कृतिको यहांके लोगोंने संभालकर रखा है ।
जालोरका स्वर्णगिरी दुर्ग
जालोरकी आन-बान-शानका प्रतीक जालोर दुर्ग आज भी अपने शौर्यकी गाथा गाता है । यह दुर्ग राजस्थान राज्य सरकारके पुरातत्व विभागकी धरोहर है एवं वर्ष १९५६ से संरक्षित स्मारक है । जालोर दुर्गपर जानेके लिए शहरके मध्यसे ढेडी-मेडी गलियोंसे होकर जाना पडता है ।
जालोर दुर्ग नगरके दक्षिणमें १२०० फीट ऊंची पहाडीपर स्थित है । दुर्गमें जानेके लिये एक टेढा-मेढा पहाडी रास्ता जाता है, जिसकी ऊंचाई कदम-कदमपर बढती हुई प्रतीत होती है । इस चढाईको पार करनेपर प्रथम द्वार आता है, जिसे ‘सूरजपोल’ नामसे कहते हैं । धनुषाकार छतसे आच्छादित यह द्वार आज भी बडा सुंदर दिखाई देता है । इस पर छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं, जिनके नीचेके अन्त:पाश्वोंमें दुर्ग रक्षक रहा करते थे । तोपोंकी मारसे बचनेके लिये एक विशाल दीवार घूमकर दरवाजेको सामनेसे ढक लेती है । यह दीवार लगभग २५ फीट ऊंचीr तथा १५ फीट मोटी है । इसके पश्चात् लगभग आधा मील चलनेपर दुर्गका दूसरा द्वार आता है, जो ‘ध्रुव पोल’ नामसे कहलाता है । यहांकी घेराबंदी भी बडी महत्वपूर्ण थी । इस मोर्चेको जीते बिना दुर्गमें प्रवेश करना असंभव था ।
तीसरा द्वार ‘चान्दपोल’ नामसे कहलाता है, जो अन्य द्वारोंसे अधिक भव्य, मजबूत एवं सुंदर है । यहांसे रास्तेके दोनों ओर साथ चलनेवाली प्राचीर कई भागोंमें विभक्त होकर गोलाकर सुदीर्ध पर्वत प्रदेशको समेटती हुई फैल जाती है । तीसरेसे चौथे द्वारके बीचका स्थल बडा सुरक्षित है । चौथा द्वार ‘सिरे पोल’ नामसे कहलाया जाता है । यहां पहुचनेसे पहले प्राचीरकी एक पंक्ति बाई ओरसे ऊपर उठकर पहाडीके शीर्ष भागको छू लेती है और दूसरी दाहिनी ओर घूमकर गिरिशृंगोको समेटकर चक्राकार घूमती हुई प्रथम प्राचीरसे आ मिलती है ।
किलेकी लम्बाई पौन किलोमीटर तथा चौडाई लगभग आधा किलोमीटर है । इस समय यहां राजा मानसिंहका महल, दो बावडियां, एक शिव मंदिर, देवी जोगमायाका मंदिर, वीरमदेवकी चौकी, तीन जैन मंदिर, मिल्लकशाह दातारकी दरगाह तथा मस्जिद स्थित है । जैन मंदिरोमें पाश्र्वनाथका मंदिर सबसे बडा एवं भव्य है । इस मंदिरके पीछे दीवारोंपर अंकित मूर्तिशिल्प अनूठा है, जो कि दर्शाकोंको सर्वाधिक आकर्षित करता है ।
चौमुखा जैन मंदिरसे मानसिंहके महलोंकी ओर जाते समय ठीक तिराहेपर एक परमारकालीन कीर्ति स्तंभ एक छोटे चबूतरेपर आरक्षित स्थितिमें खडा है । संभवत: परमारोंकी यही अन्तिम निशानी इस किलेमें बची है । मानव आकृतिके कदका लाल पत्थरका यह कीर्ति स्तंभ अपनी कलापूर्ण गढाईके कारण विवश होकर ही पर्यटकोंका ध्यान अपनी ओर खींच लेता हैं । वर्षों पूर्व यह स्तंभ किसी कुएकी सफाई करते समय मिला था, जिसे यहां स्थापित कर दिया गया है ।
मानसिंहके महलोंमें प्रवेश करते ही एक विशाल चौकोर सभा मंडप आता है । जिसके दाई ओर एक सभागृह है । इस सभागृहमें एक टूटी-फूटी तोप गाडी और एक विशाल तोप पडी है । मानसिंह महलके ठीक नीचे आम रास्तेकी तरफ ऊंचाईपर झरोखे बने हुए हैं, जो कि प्रस्तर कलाकी उत्कृष्ट निशानी है । इसी महलमें दो तलोंका रानी महल है । उसके चौकमें भूमिगत कुआं बनाया हुआ है, जोकि अब दर्शकोंके लिये बंद कर दिया गया है । महलमें बडे बडे कोठार बने हुए हैं, जिनमें धान, घी आदि भरा रहता था । महलकी पिछली पगडंडियोंसे शिव मंदिरकी ओर मार्ग जाता है । जहां एक श्वेत प्रस्तरका विशाल शिवलिंग स्थित है । मंदिरके पिछवाडेसे कुएंकी ओर एक रास्ता जाता है, जहांपर चामुण्डा देवीका मंदिर बना हुआ है । इस मंदिरमें एक शिलालेख लगा हुआ है, जिसमें युद्धसे घिरे हुए राजा कान्हडदेवको देवी भगवती द्वारा चमत्कारिक रूपसे तलवार पहुंचानेकी सूचना उत्कीर्ण है ।
वीरमदेवकी चौकी पहाडीकी सबसे ऊंची जगहपर दक्षिण पूर्व ही ओर स्थित है । यहांसे बहुत दूर-दूरतकका दृश्य देखा जा सकता है । यहां जालोर राज्यका ध्वज लगा रहता था । वर्तमानमें इसके पास ही एक मस्जिद है । अंग्रेजोंके विरुद्ध किए गए स्वतंत्रता आंदोलनके समय गणेशलाल व्यास, मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी एवं तुलसीदास राठी आदि नेताओंको इसी किलेमें नजरबंद किया गया था ।
इसलिए भी है विशेष महत्त्व
जालोर दुर्ग मारवाडका सुदृढ गढ है । इसे परमारोंने बनवाया था । यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौडोंके आधीन रहा । यह राजस्थानमें ही नही; अपितु सारे देशमें अपनी प्राचीनता, सुदृढता और सोनगरा चौहानोंके अतुल शौर्यके कारण प्रसिद्ध रहा है । जालौर जिलेका पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाडी शृंखलासे आवृत है । इस पहाडी शृंखलापर उस कालमें घनी वनावली छायी हुई थी । अरावलीकी शृंखला जिलेकी पूर्वी सीमाके साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊंचीr चोटी ३२५३ फुट ऊंचीr है। इसकी दूसरी शाखा जालौरके वेंâद्र भागमें पैâली है, जो २४०८ फुट ऊंचीr है । इस शृंखलाका नाम सोनगिरि है । सोनगिरि पर्वतपर ही जालौरका विशाल दुर्ग विद्यमान है । प्राचीन शिलालेखोंमें जालौरका नाम जाबालीपुर और किलेका नाम ‘सुवर्णगिरि’ मिलता है । ‘सुवर्णगिरि’ शब्दका अपभ्रंशरुप ‘सोनलगढ’ हो गया और इसीसे यहांके चौहान सोनगरा कहलाए । जहां जालौर दुर्गकी स्थिति है, उस स्थानपर सोनगिरिकी ऊंचाई २४०८ फुट है । यहां पहाडीके शीर्ष भागपर ८०० गज लंबा और ४०० गज चौडा समतल मैदान है । इस मैदानके चारों ओर विशाल बुजाए और सुदृढ प्राचीरोंसे घेर कर दुर्गका निर्माण किया गया है । गोल बिंदुके आकारमें दुर्गकी रचना है, जिसके दोनों पाश्र्वभागोंमें सीधी मोर्चा बंदी युक्त पहाडी पंक्ति है ।
दुर्गमें प्रवेश करनेके लिए एक टेढा-मेढा रास्ता पहाडीपर जाता है । अनेक सुदीर्घ शिलाओंकी परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किलेके प्रथम द्वार तक पहुंचता है । किलेका प्रथम द्वार बडा सुंदर है । नीचेके अंत: पाश्र्वभागपर रक्षकोंके निवास स्थल हैं । सामनेकी तोपोंकी मारसे बचनके लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वारको सामनसे ढक देती है । यह दीवार २५ फुट ऊंचीr एंव १५ फुट चौडी है । इस द्वारके एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीरका भाग है । यहांसे दोनों ओर दीवारोंसे घिरा हुआ किलेका मार्ग ऊपरकी ओर बढता है । ज्यों-ज्यों आगे बढते हैं, नीचेकी गहराई अधिक होती जाती है ।
इन प्राचीरोंके पास मिट्टीके ऊंचे स्थल बने हुए हैं, जिनपर रखी तोपोंसे आक्रमणकारियोेंपर मार की जाती थी । प्राचीरोंकी चौडाई यहां १५-२० फुटतक हो जाती है । इस सुरक्षित मार्गपर लगभग आधा मील चढनेके बाद किलेका दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है । इस दरवाजेका युद्धकलाकी दृष्टिकोणसे विशेष महत्व है । दूसरे दरवाजेसे आगे किलेका तीसरा और मुख्य द्वार है । यह द्वार दूसरे द्वारोंसे विशालतर है । इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं । यहांसे रास्तेके दोनों ओर साथ चलनेवाली प्राचीर शृंखला कई भागोंमें विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेशको समेटती हुई फैल जाती है । तीसरे एवं चौथे द्वारके मध्यकी भूमि बडी सुरक्षित है । प्राचीरकी एक पंक्ति तो बांई ओरसे ऊपर उठकर पहाडीके शीर्ष भागको छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानोंपर छाई हुई चोटियाको समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीरकी पंक्तिसे आ मिलती है । यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकारके बुर्ज बनाए गए हैं । कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीरसे अलग हैं । दोनोंकी ओर गहराई ऊपरसे देखनेपर भयावह लगती है ।
जालौर दुर्गका निर्माण परमार राजाओंने १०वीं शताब्दीमें करवाया था । पश्चिमी राजस्थानमें परमारोकी शक्ति उस समय चरम सीमापर थी । धारावर्ष परमार बडा शक्तिशाली था । उसके शिलालेखोंसे, जो जालौरसे प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्गका निर्माण उसीने करवाया था । वस्तुकलाकी दृष्टिसे किलेका निर्माण हिन्दु शैलीसे हुआ है । परंतु इसके विशाल प्रांगणमें एक ओर मुसलमान संत मलिक शाहकी मस्जिद है । जालौर दुर्गमें जलके अतुल भंडार हैं । सैनिकोंके आवास बने हुए हैं । दुर्गके निर्माणकी विशेषतके कारण तोपोंकी बाहरसे की गई मारसे किलेके अंतः भागको जरा भी हानि नही पहुंचीr है । किलेमें इधर-उधर तोपें बिखरी पडी हैं । ये तोपों विगत संघर्षमय युगोंकी याद ताजा करतीं है ।
१२ वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारोंके अधिकारमें रहा । १२ वीं शताब्दीमें गुजरातके सोलंकियोंने जालौरपर आक्रमण कर परमारोंको कुचल दिया और परमारोंने सिद्धराज जयसिंहका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया । सिद्धराजकी मृत्युके बाद कीर्विâत्तपाल चौहानने दुर्गको घेर लिया । कई माहके कठोर प्रतिरोधके बाद कीर्विâत्तपाल इस दुर्गपर अपना अधिकार करनेमें सफल रहा । कीर्विâत्तपालके पश्चात् समरसिंह और उदयसिंह जालौरके शासक हुए । उदय सिंहने जालौरमें सन १२०५ से सन १२४९ तक शासन किया । गुलाम वंशके शासक इल्तुतमिशने १२११ से १२१६ के बीच जालौरपर आक्रमण किया । उन्होंने अधिक लंबे समयतक दुर्गका घेरा डाले रखा । उदय सिंहने वीरताके साथ दुर्गकी रक्षा की; पंरतु अंतोगत्वा उसे इल्तुतमिशके सामने हथियार डालने पडे । इल्लतुतमिशके साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरेमें उपस्थित थे, उन्होंने दुर्गके बारेमें अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि, यह अत्यधिक सुदृढ दुर्ग है, जिनके दरवाजोंको खोलना आक्रमणकारियोंके लिए असंभव-सा है ।
इस दुर्गके कारण यहांके शासक अपने आपको बडा बलवान मानते थे । जब कान्हडदेव यहांका शासक था, तब सन १३०५ में अलाउद्दीन खिलजीने जालौरपर आक्रमण किया । अलाउद्दीनने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासीके नेतृत्वमें भेजी थी । यह सेना कन्हडदेवका मुकाबला करनेमें असमर्थ रही और उसे पराजित होना पडा । इस पराजयसे दुखी होकर अलाउद्दीनने सन १३११ में एक विशाल सेना कमालुद्दीनके नेतृत्वमें भेजी, परंतु यह सेना भी दुर्गपर अधिकार करनेमें असमर्थ रही । दुर्गमें अथाह जलका भंडार एंव रसद आदिकी पूर्ण व्यवस्था होनेके कारण राजपूत सैनिक लंबे समयतक प्रतिरोध करनेमें सक्षम रहते थे । साथ ही इस दुर्गकी मजबूत बनावटके कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था । दो बार की असफलताके बाद भी अलाउद्दीनने जालौर दुर्गपर अधिकारका प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया । तात्कालीन श्रोतोंसे ज्ञात होता है कि, जब राजपूत अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर दुर्गकी रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाजने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभनमें शत्रुओंको दुर्गमें प्रवेश करनेका गुप्त मार्ग बता दिया । जिससे शत्रु सेना दुर्गके भीतर प्रवेश कर गई । कन्हडदेव और उसके सैनिकोंने वीरताके साथ खिलजीकी सेनाका मुकाबला किया और कन्हडदेव इस संघर्षमें वीर गतिको प्राप्त हुआ ।
कन्हडदेवकी मृत्युके पश्चात् भी जालौरके चौहानोंने हिम्मत नहीं हारी और पुन: संगठित होकर कन्हडदेवके पुत्र वीरमदेवके नेतृत्वमें संघर्ष जारी रखा, परंतु मुठ्ठीभर राजपूत रसदकी न्यूनता हो जानेके कारण शत्रुओंको ज्यादा देरतक रोक नहीं सके । वीरमदेवने पेटमें कटार भोंककर मृत्युका वरण किया । इस संपूर्ण घटनाका उल्लेख अखेराज चौहानके एक आश्रित लेखक पदमनाथने ‘कन्हडदेव प्रबंध' नामक ग्रंथमें किया है । महाराणा कुंभाके काल (सन १४३३ से १४६८ सन) में राजस्थानमें जालौर और नागौर मुस्लिम शासनके केन्द्र थे । सन १५५९ में मारवाडके राठौड शासक मालदेवने आक्रमण कर जालौर दुर्गको अल्प समयके लिए अपने अधिकारमें ले लिया । सन १६१७ में मारवाडके ही शासक गजसिंहने इसपर पुन: अधिकार कर लिया । १८ वीं शताब्दीके अंतिम चरणमें जब मारवाड राज्यके राज सिंहासनके प्रश्नको लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंहके मध्य संघर्ष चल रहा था, तब महाराजा मानसिंह वर्षोंतक जालौर दुर्गमें रहे । इस प्रकार १९ वीं शताब्दीमें भी जालौर दुर्ग मारवाड राज्यका एक हिस्सा था । मारवाड राज्यके इतिहासमें जालौर दुर्ग जहां एक ओर अपने स्थापत्यके कारण विख्यात रहा है, वहीं सैनिक दृष्टिसे भी महत्वपूर्ण रहा है ।