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मोदरा का श्री आशापुरी माताजी का मंदिर अपनी विशिष्ट पहचान के लिए जन-जन में आस्था और विश्वास का प्रतीक बनता जा रहा है। पवित्र धाम के पर विराजित मां आशापुरी की मोहक प्रतिमा भक्तों की आशाएं पूरी करती है। यह मंदिर सभी जातियों, धर्मों, समुदाय के लोगों में लोकप्रय बनता जा रहा हैं। यहां प्रतिवर्ष हजारों यात्री देश के विभिन्न क्षेत्रों से मोदरा की श्री आशापुरी माताजी के दर्शन करने आते रहते हैं। विशेषकर यहां होली त्यौहार के तीसरे दिन आयोजित होने वाले मेले में भाग लेने के लिए अपार जनसमुदाय एकत्रित होता है। इस मेले में श्रद्धा व आस्था के साथ विश्वास और साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल देखने को मिलती है। श्री आशापुरी माताजी के दर्शन करने आने वाले यात्री माताजी से अपनी आशाओं की पूर्ति के साथ जीवन में सुख एवं समृद्धि की मनोकामना करते हुए प्रसादी चढ़ाकर अपने आपको भाग्यशाली समझते हैं। 
देवी का नाम महोदरी भी बताया गया है, जिसका वर्णन दुर्गा सप्तशती में भी उल्लेखित है। यह देवी चौहान व भंडारी समाज की कुलदेवी के नाम से पहिचानी जाती है। प्राचीन समय मे यह स्थल महोदरा के नाम से परिचायक रहा थाए इस कारण महोदरी माताजी के नाम से भी इनकी पहचान है।
माताजी ने महिषासुर का मर्दन किया था, इस कारण इन्हे महिषासुरमर्दनी के नाम से विशेष रूप से पुकारा जाता है। मोदरा माताजी ने जूनागढ़ के राजा खंगार चुड़ासमा की पटरानी शीतल सोलंकणी की पुत्र प्रप्ति की आशा को पूर्ण करने पर इन्होने आशापुरी माताजी के नाम से सम्बोधित करने के पश्चात् जनसमुदाय माताजी को आशापुरी माता के नाम से पूजता आ रहा है। वैसे भी अब असंख्य लोगों ने माताजी की अपार श्रद्धा से अराधना-उपासना के साथ पूजा की और माताजी ने उनकी आशाओं को पूर्ण कर दिया। यह क्रम निरन्तर बहुसंख्या में आज भी जारी है। माताजी का गांव का उच्चारण करते ही लो समझ जाते है कि यह मोदरा ही है जहां शिखर वाला भव्य मन्दिर बना हुआ है। 
आशापुरी देवी - आशा पूर्ण करने वाली देवी को आशापुरी या आशा पुरा देवी कहते हैं. जालोर के चौहान शासकों की कुलदेवी आशापुरी देवी थी जिसका मंदिर जालोर जिले के मोदरां माता अर्थात बड़े उदर वाली माता के नाम से विख्यात है. चौहानों के अतिरिक्त कई जातियों के लोग तथा जाटों में बुरड़क गोत्र इसे अपनी कुल देवी मानते हैं. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७६).

आशापुरा देवी का मंदिर राजस्थान के नाडोल [1] नाम के गाव मे भी स्थित है.
मंदिर परिसर में खड़े दर्जनों कदम्ब वृक्ष आज भी अपनी छटा से माहौल को सुरभित किए हुए हैं। ये दुर्लभ वृक्ष देशभर में संरक्षित है। ऐसा कहा जाता है कि रानी शीतल सोलंकणी के प्रवास के समय जिन ठूंठों से घोड़े बांधे गए थेए वे माताजी के आशीर्वाद से वृक्ष का रूप बन गए। वे वृक्ष माताजी के आशीर्वाद को भली भांति फलीभूत करते हुए मंदिर परिसर में दिव्य छटा बिखेरते हैं।
ये कदम्ब का पेड़
जब ब्रज की कुंज गलियन में अठखेलियां करने वाला कान्हा कभी कदम्ब की सघन छांव में आंखें बंद करके बांसुरी की तान छेड़ता तो प्रकृति भी सम्मोहित हो उठती थी। कदम्ब के वृक्ष से कालिया नाग पर छलांग लगाने, गोपियों के वस्त्र चुराने की घटना हो या सुदामा के साथ चने खाने का वाकया। द्वापर के जमाने में कृष्ण का साथी रहा कदम्ब का वृक्ष आज उपेक्षा का शिकार हो चला है।

कभी मोदरा के आशापुरी माता मंदिर प्रांगण में कदम्ब के दर्जनों वृक्ष हुआ करते थे, लेकिन अब इन वृक्षों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐतिहासिक महत्व के इन वृक्षों के प्रति क्षेत्र के लोगों की अगाध आस्था है। बड़े-बूढ़ों के मुताबिक एक जमाना था जब यहां रमणियां श्रावणी तीज पर उन पर झूले डालकर ऊंची पींगे बढ़ाती थीं। अमावस्या, पूनम, एकादशी और चौथ समेत कई तिथियों पर यहां की महिलाएं अब भी इन वृक्षों का पूजन करके वस्त्र आदि चढ़ाती है। पिछले वर्ष पीर शांतिनाथ महाराज के चातुर्मास के दौरान यहां कदम्ब घाट का निर्माण भी करवाया गया, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर इस ऐतिहासिक स्थल के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए प्रयासों की नितान्त आवश्यकता है।

इसलिए हरा-भरा रहता है कदम्ब
एक पौराणिक कथा के मुताबिक स्वर्ग से अमृत पीकर लौट रहे विष्णु के वाहन गरुड़ की चोंच से कुछ बूंदे कदम्ब के वृक्ष पर गिर गई थी। इस कारण यह अमृत तुल्य माना जाता है। श्रावण मास में आने वाले इसके फूलों का भी विशेष महत्व है।

इसलिए भी है विशिष्ट
29 नक्षत्रों में से शतभिषा नक्षत्र का वृक्ष कदम्ब कामदेव का प्रिय माना जाता है। इसके अलावा भगवान विष्णु, देवी पार्वती और काली का भी यह प्रिय वृक्ष है। भीनमाल के कवि माघ ने अपने काव्य में इसका वर्णन किया। उनके अलावा बाणभट्ट के प्रसिद्ध काव्य "कादम्बरी" की नायिका "कादम्बरी" का नाम भी कदम्ब वृक्ष के आधार पर है। इसी तरह भारवि, माघ और भवभूति ने भी अपने काव्य में कदम्ब का विशिष्ट वर्णन किया है। वहीं प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने अपने शोध में कदम्ब वृक्ष का उल्लेख किया है।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी लिखा है...
ले देती मुझे बांसुरी तू दो पैसे वाली,
किसी तरह नीचे हो जाती ये कदम्ब की डाली।
ये कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥